हमारी आजादी को 70 दशक हो चुके है और हम चैन और अमन के साथ अपने परिवार के साथ रहते है। पर इस आजादी के पीछे कितने वीरों और वीरांगनाओ ने कुर्बानियों दी है, उसे हम गिन नहीं सकते। इन्हीं वीरों में से एक नाम प्रमुख है, वह है Bhagat Singh। वे देश की आजादी के लिए इतने दीवाने थे कि जब वे मात्र तीन साल के थे, तभी से भारतमाता के दामन से गुलामी जंजीरों को तोड़ने के लिए अपने प्रयास शुरू कर दिये थे और जवान होते-होते मात्र 23 साल की अल्प आयु में आजादी के लिए अंग्रेजों की फांसी पर हंसते-हंसते चढ़ गए।
आइये फ्रेंड इस Hindi Biography द्वारा आजादी के मतबाले Bhagat Singh की वीर कहानी को जानते है…
अनुक्रम
Bhagat Singh (Wiki) Hindi Biography
Family
भगत सिंह का जन्म पंजाब प्रांत (अब पाकिस्तान में) के बंगा गाँव के आर्य समाजी सिख परिवार में हुआ था। उनके पिता किशन सिंह एक क्रांतिकारी थे और उनकी माँ विद्यावाती कौर एक धार्मिक महिला थी।
जिस दिन Bhagat Singh का जन्म हुआ था, उसी दिन भारत माता की आजादी के लिए संघर्षरत रहे उनके पिता व चाचा जेल से छूटे थे और तीन दिन बाद उनके दोनों चाचाओं की भी जमानत पर रिहाई हुई। इसलिए उनके दादा अर्जुन सिंह और दादी जयकौर ने उन्हें भागों वाला कहकर बुलाते थे, जो बाद में भगत सिंह नाम से जाना जाने लगे।
Childhood
कहते है पूत के पाँव पालने में ही नजर आ जाता है, इसका प्रमाण उनके एक प्रसिद्ध घटना से मिलता है, जब वे मात्र तीन साल के थे, तब एक दिन वे अपने पिता के साथ पिता के मित्र नन्द किशोर मेहता के खेत पर गए। वहाँ दोनों दोस्त बातों में मशगूल हो गए और नन्हें भगत सिंह भी अपने खेल में मस्त हो गए।
तभी नन्द किशोर मेहता का ध्यान छोटे बालक के खेल पर गया। वे मिट्टी के ढेरों पर छोटे-छोटे तिनके लगाए जा रहे थे।
उनके इस खेल को देखकर मेहता जी बड़े स्नेह से उनसे बातें करने लगे –
“तुम्हारा क्या नाम है”
“भगत सिंह”
“तुम क्या करते हो?”
“मैं बंदुके बेचता हूँ।”
“बंदूकें…?”
“हाँ, बंदूकें।”
“वह क्यों ?”
“अपने देश को आजाद कराने के लिए।”
“तुम्हारा धर्म क्या है ?”
“देशभक्ति ! देश की सेवा करना।”
मेहता जी छोटे बालक के बातों से बड़े प्रभावित हुए और गर्व से उन्हें अपने गोद में उठा लिया और सरदार किशन सिंह से बोले,
भाई ! तुम बड़े भाग्यशाली हो, जो तुम्हारे घर में ऐसे वीर और होनहार बालक ने जन्म लिया।
उनका बचपन ऐसी कई वीर कहानियों से भरा-पड़ा है, जो भारतमाता का असली लाल होने का प्रमाण देता है।
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Education
पाँच वर्ष की आयु में उनकी प्रारम्भिक शिक्षा पैतृक गाँव बंगा के जिला बोर्ड प्राइमरी स्कूल में हुई। जब वे ग्यारह वर्ष के थे, तब उनके साथ पढ़ रहे उनके बड़े भाई जगत सिंह का आकस्मिक निधन हो गया।
इसके बाद उनका पूरा परिवार लाहौर के पास नवाकोट में रहने के लिए चले गए। वहाँ उनकी पढ़ाई लाहौर स्थित डी ए वी स्कूल से होने लगी।
उनके दादा चाहते तो उन्हें पढ़ने के लिए विदेश भेज सकते थे, पर क्रांतिकारी भावना से ओत-प्रोत स्वाभिमानी अर्जुन सिंह ने क्रांतिकारी विचारधारा के लिए विख्यात इस डी ए वी स्कूल को ही चुना।
जालियावाला बाग कांड
इसी दौरान, 13 अप्रैल 1919 को जालियावाला बाग में रोलेक्ट एक्ट के खिलाफ लोगों का जमावड़ा लगा हुआ था, तब अंग्रेजी सैनिक आई और जनरल डायर के आदेश पर बाग में मौजूद निहत्थे बच्चे, बूढ़ों और महिलायों पर अंधाधुंध गोलीयां चलाई और तुरंत ही चीख पुकार आवाजों के बीच धरती रक्त से सन गई।
इस घटना ने 12 साल के कोमल मन को कठोरता की नई पहचान देते हुए पूरी तरह से आक्रोश से भर दिया और उन्होंने खून से सने मिट्टी को छु कर कसम खाई कि वह इन बेकसूर लोगों के निर्मम हत्या का बदला लेकर रहेंगे।
इस कारण उनका मन पढ़ाई में नहीं लगा और नौवी क्लास की पढ़ाई बीच में छोड़ते हुए सन 1921 में गांधीजी के असहयोग आंदोलन में कूद पड़े।
क्रांतिकारी कॉलेज
यहाँ उनकी मुलाक़ात आजादी के दीवाने लाला लाजपतराय से हुई, जिनसे प्रभावित होते हुए उनके द्वारा लाहौर में स्थापित नेशनल कॉलेज में पढ़ाई करने लगे।
उन दिनों यह कॉलेज क्रांतिकारियों का सबसे बड़ा गुरुकुल और गढ़ माना जाता था, जहां उनकी मुलाक़ात रामकिशन, सुखदेव जैसे क्रांतिकारियों से हुई।
इस कॉलेज में लाला लाजपत, परमानंद और जयचंद विद्यालंकार अपने क्रांतिकारी लेक्चर से स्टूडेंटस में देश-भक्ति का संचार किया करते थे।
भगत सिंह अपनी अटूट देशभक्ति के कारण जल्द ही अपने गुरुयों के प्रिय शिष्य बन गए, विशेषकर प्रो॰ विद्यालंकार के। जिन्हें भगत सिंह का राजनीतिक गुरु भी माना गया।
इन्हीं दिनों घरवालों द्वारा उनपर शादी का दवाब बनाया जा रहा था तो उन्होंने यह कहते हुए शादी करने से इंकार कर दिया कि
मैं अपना जीवन इस देश के आजादी के लिए समर्पित कर चुका हूँ। अब इस जीवन में किसी भी सांसारिक इच्छा की कोई जगह नहीं है।
आजादी के लिए दीवानगी
और 1924 में बीए की पढ़ाई बीच में छोड़ आजादी आंदोलनों में सक्रिय रूप से कूद पड़े।
30 अक्तूबर, 1928 को इन आजादी के दीवानों की पहली परीक्षा की घड़ी आ गई, जब लाला लाजपत राय के नेतृत्व में भगत सिंह अपने साथियों के साथ साईमन कमीशन के लाहौर आगमन का अहिंसात्मक विरोध करने लगे।
इस घटना में अंग्रेजी सेना के द्वारा लाला लाजपत राय के सिर पर डंडों का अगण्य बार किया गया, जिसके कारण वे गंभीर रूप से घायल हो गए और 17 नवंबर 1928 को स्वर्ग सिधार गए।
जिसका बदला लेने के लिए क्रांतिकारियों के खून में जबर्दस्त उबाल आ गया। इसी मंशा से क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी अधिकारी स्कॉट की हत्या की साजिस रची और प्लान के अनुसार भगत सिंह, जयगोपाल और राजगुरु ने 17 दिसंबर 1928 को धोखे से स्कॉट की जगह सांडर्स को मौत की नींद सुला दिए।
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असेंबली बम कांड
और आगे अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को जारी रखते हुए वे अंग्रेजी हुकूमत को नींद से जगाने और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को भारतवाशियों पर हो रहे अत्याचार से परिचित कराने के मंशा से असेंबली में बम फेंकने की योजना बनाई।
8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह, राजगुरु और बटुकेश्वर दत्त ने असेंबली के सुरक्षा कर्मियों को धोखा देते हुए बालकनी पर से हानिकारक तत्वों से रहित हल्के बम्बों को असेंबली के खाली परागण में फेंके।
गिरफ्तारी
और स्वेच्छा गिरफ्तार हो गए, जबकि चंद्रशेखर आजाद चाहते थे कि भगत सिंह राजगुरु और बटुकेश्वर दत्त घटनास्थल से भाग जाए, क्योंकि देश कि आजादी के लिए उनकी जरूरत थी।
पर हठी Bhagat Singh कहां मनाने वाले थे, इस घटना के बाद उनपर कई बार मुकदमें-बाजी हुई।
जेल जीवन
मुकदमें के दौरान ये आजादी के दीवाने अपने मस्ती में मशगूल रहते और पूरे कोर्ट परिसर को इंकलाब जिंदाबाद के नारों से गुंजायमान कर देते थे।
चूंकि इन दीवानों का मुकदमा जितना कोई लक्ष्य नहीं था, ये तो उनका शासन के नशे में सोये अंग्रेजी हुकूमत को जगाने का प्रयास था।
भारत माता के तीनों वीरों ने जेल में कितने ही कष्ट सहे पर कभी भी जीवन में उल्लास और हंसी ठिठोली से मुंह नहीं मोड़ा। वे सभी किसी मतवाले हाथी तरह अपना जीवन जी रहे थे।
तारीख के दौरान माँ विद्यावती बच्चों को कुछ खिलाने के लिए लाती तो Bhagat Singh कहते थे, पहले बटुकेश्वर को खिलाओ। ऐसा अटूट प्रेम था।
शहीद भगत सिंह अपने जज़्बातों के बारे में कहते है,
मेरी कलम, मेरे जज़्बातों को इस कदर जानती है कि मैं ईश्क भी लिखना चाहूँ तो इंकलाब ही लिखा जाता है।
और अंत में उन्हें और उनके साथियों को23 मार्च 1931 को फांसी की सज्जा सुनाई गई।
उनके वकील प्राणनाथ मेहता के संस्मरणों के अनुसार फांसी के दिन Bhagat Singh ने जेलरों से रसगुल्ले की फरमाइश की। यहीं उनके जीवन का अंतिम भोजन था।
इसके बाद वे लेनिन की जीवनी पढ़ने में लिन हो गए और कुछ देर बाद जेल का दरवाजा खुला और अधिकारी ने कहा,
सरदार जी, फांसी लगाने का हुक्म आ गया है।
उन्होंने कहां,
जरा ठहरों, एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है
फिर जो प्रसंग वे पढ़ रहे थे, उसे समाप्त करके पुस्तक रख दी और बोले,
चलों।
फिर तीनों दीवाने भगत, सुखदेव और राजगुरु बाहर निकले और अंतिम बार गले मिले।
और दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फ़त…!
गीत गाते हुए फांसी स्थल पर पहुंचे और अंतिम बार इंकलाब जिंदाबाद, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद के नारा लगाए और फांसी की रस्सी कसी और तख्त खुलते ही तीन झूल गए और सदा के लिए भारतमाता के प्यारे हो गए।
Quick Fact
Bio Data
Name – Bhagat Singh
Date of Birth – September 28, 1907
Birth of Place – Banga, Punjab Province
Date of Death – March 23, 1931
Death of Place – Lahore, Punjab
Family
Father – Sardar Kishan Singh
Mother – Vidyavati Kaur
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